ये अप्रैल 2020 की बात हैं दिल्ली की तंग गलियों में बसी हमारी छोटी सी बस्ती, जो हमेशा बच्चों की हंसी और दौड़भाग से गुलज़ार रहती थी, लेकिन उस दिन खामोश थी। सड़कों पर चारो तरफ सन्नाटा पसरा था, जैसे पूरा मोहल्ला सांस रोककर किसी अनहोनी का इंतज़ार कर रहा हो। कोरोना ने सब कुछ बदल दिया था। स्कूल बंद थे, दुकानें बंद थीं, और लोग अपने-अपने घरों में पूरी तरह से कैद हो गए थे। लेकिन मेरे लिए, उस वक्त सबसे बड़ा डर था शिवांगी को खो देने का। मेरी शिवांगी, मेरी दोस्त, मेरी पड़ोसी, मेरी साये की तरह साथ रहने वाली हमजोली।
मैं, रुचिका, और वो, शिवांगी—हम दोनों को मोहल्ले वाले और स्कूल में सब “रुशि” कहकर बुलाते थे। जैसे हम दो नहीं, एक ही थे। दसवीं कक्षा में थीं हम दोनों। एक ही बेंच पर बैठते, टिफिन शेयर करते, और ट्यूशन के लिए साइकिल पर साथ-साथ जाते। शिवांगी की हंसी में कोई जादू था। वो हंसती तो लगता जैसे सारी दुनिया की उदासी एक पल को ठहर जाती। उसकी आंखों में हमेशा एक चमक रहती थी, और बातों में ऐसी मासूमियत, जो किसी का भी दिल जीत ले। लेकिन उसकी सांसें… वो हमेशा से कमज़ोर थीं। अस्थमा ने उसे पूरी तरह से जकड़ रखा था। फिर भी, वो कभी शिकायत नहीं करती थी। बस अपनी इनहेलर को जेब में रखती और कहती, “रुचि, तू टेंशन मत ले, मैं ठीक हूं।”
दोस्ती की शुरुआत
हमारी दोस्ती की शुरुआत तब हुई थी, जब मैं आठ साल की थी और हमारा परिवार इस मोहल्ले में शिफ्ट हुआ था। पहली बार स्कूल बस में मिली थी शिवांगी। मैं नई थी, डरी हुई, और कोने में सिमटी बैठी थी। उसने मेरे पास आकर कहा, “हाय, मैं शिवांगी। तू रुचिका, ना? चल, मेरे साथ बैठ।” उस दिन से हम साथ थे। स्कूल में टीचर की डांट खाने से लेकर होमवर्क चुराने तक, हर शरारत में हम एक-दूसरे की ढाल बनकर रहते थे। मोहल्ले की गलियों में साइकिल दौड़ाते, गर्मियों में छत पर पतंग उड़ाते, और सर्दियों में मूंगफली खाते हुए घंटों बातें करते। शिवांगी को सपने देखना बहुत पसंद था। वो कहती, “रुचि, हम दोनों मिलकर एक दिन बड़ा नाम करेंगे। मैं डॉक्टर बनूंगी, और तू… तू जो चाहे बनना।”
लेकिन कोरोना ने सब कुछ छीन लिया। मार्च में जब लॉकडाउन लगा, स्कूल बंद हो गए। हमारी मुलाकातें भी काफी कम हो गईं। फिर भी, हम छतों पर खड़े होकर एक-दूसरे को देखकर इशारे करते, फोन पर घंटों बातें करते। शिवांगी कहती, “ये वायरस तो चला जाएगा, रुचि। फिर हम वापस स्कूल जाएंगे, वही पुरानी मस्ती फिर से करेंगे।” लेकिन अप्रैल के पहले हफ्ते में उसकी तबीयत बिगड़ने लगी। पहले बुखार, फिर खांसी। उसकी मम्मी ने बताया कि उसे सांस लेने में काफी तकलीफ हो रही थी। मैंने फोन पर उससे बात की। उसकी आवाज़ कमज़ोर थी, लेकिन वो फिर भी हंसी। “रुचि, तू डर मत। मैं जल्दी ठीक हो जाऊंगी यार।”
मुझे शिवांगी से मिलना हैं।
अगले दिन उसे अस्पताल ले गए। मैंने मम्मी से कहा, “मुझे शिवांगी से मिलना है।” लेकिन मम्मी ने मना कर दिया। “बेटा, अस्पताल में कोई नहीं जा सकता। कोरोना है, खतरा है, मम्मी ने मुझे समझाया।” मैंने भगवान जी से दिन-रात प्रार्थना की। हर मंदिर, हर भगवान को याद किया। लेकिन 10 अप्रैल की सुबह, वो खबर आई, जिसने मेरी पूरी दुनिया ही उजाड़ दी। शिवांगी भगवान जी के पास चली गई थी। ऑक्सीजन की कमी और अस्थमा की वजह से उसकी हालत पूरी तरह से बिगड़ गई थी। मेरी शिवांगी, मेरी रुशि का आधा हिस्सा, मुझे छोड़कर चली गई।
उसके जाने के बाद सब कुछ बदल गया। मैं अपने कमरे में बंद रहने लगी। ना खाना खाती, ना किसी से बात करती। नींद जैसे मेरी ज़िंदगी से पूरी तरह गायब हो गई थी। रात को उसकी हंसी याद आती, उसकी बातें याद आतीं। उसका स्कूल बैग, जो मेरे घर की अलमारी में रखा था, उसे देखकर मेरी आंखें भर आतीं। स्कूल से खबर आई कि 11 बच्चे कोरोना की चपेट में आ गए थे। लेकिन मेरे लिए, शिवांगी की कमी सबसे बड़ा दर्द थी। वो सिर्फ़ मेरी दोस्त नहीं थी, वो मेरी बहन थी, मेरा सहारा थी।
मम्मी-पापा ने बहुत कोशिश की कि मैं उस सदमे से बाहर आऊं। लेकिन हर बार जब मैं उसकी साइकिल, उसकी किताबें, या हमारी पुरानी तस्वीरें देखती, मेरे दिल में सुई-सी चुभती। एक दिन, मम्मी ने मुझे शिवांगी का एक खत दिया। वो उसने अस्पताल जाते वक्त मेरे लिए लिखा था। उसमें लिखा था, “रुचि, तू मेरी सबसे प्यारी दोस्त है यार अगर मैं ना रहूं, तो तू मेरे हिस्से के भी सपने भी पूरे करना। और हां, हमेशा हंसते रहना। रुशि कभी उदास नहीं होती।”
कुछ करने का हौसला।
उस खत ने मुझे बुरी तरह से अंदर से हिलाकर रख दिया। मैंने सोचा, अगर मैं उदास रही, तो शिवांगी की आत्मा को कितना दुख होगा। धीरे-धीरे, मैंने खुद को संभालना सिख लिया। स्कूल फिर से शुरू हुआ, लेकिन वो बेंच अब सूनी थी। मैंने उसकी याद में एक डायरी शुरू की, जिसमें मैं अपनी हर बात लिखती थी, जैसे वो अब भी मेरे साथ हो। मैंने पढ़ाई में जी-जान लगा दी, क्योंकि शिवांगी का सपना था कि हम दोनों कुछ बड़ा करें।
आज, जब मैं पीछे मुड़कर देखती हूं, तो शिवांगी मेरे दिल में अब भी ज़िंदा है। उसकी हंसी, उसकी बातें, और हमारी रुशि वाली दोस्ती ये सब मेरे साथ अब भी है। वो चली तो गई, लेकिन उसने मुझे जीना सिखाया। उसने सिखाया कि दुख कितना भी बड़ा हो, ज़िंदगी को हार नहीं माननी चाहिए। मैं अब कॉलेज में हूं, और हर कदम पर शिवांगी मेरे साथ है। उसकी याद मेरे लिए दर्द नहीं, बल्कि एक ताकत है। और मैं जानती हूं, एक दिन, जब मैं अपने सपनों को पूरा करूंगी, तो कहीं ऊपर बैठकर शिवांगी मुस्कुराएगी और कहेगी, “शाबाश, रुचि। हमारी रुशि ने कर दिखाया।”
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