Family Story: गाँव के दूसरे छोर पर एक पुराना सा मकान था — मिट्टी से लिपे आँगन वाला, खपरैल की छत और आम का एक घना पेड़ जिसकी छाँव में एक पुरानी लकड़ी की बेंच रखी थी। यही घर था हरिदास मास्टर जी का। कभी इसी घर में चारों बेटों, एक बेटी, बहुओं, पोते-पोतियों की चहल-पहल हुआ करती थी। पर अब ये घर सन्नाटे से भरा था।
हरिदास जी, जो कभी गाँव के स्कूल में मास्टर थे, अब 72 की उम्र में बहुत अकेले और तन्हा हो गए थे थे। पाँच साल पहले उनकी पत्नी सरोजा जी चल बसीं, और बच्चे धीरे-धीरे शहरों में जाकर बस गए। किसी को मुंबई की नौकरी ने बाँध लिया, तो किसी को दिल्ली के फ्लैट में ज़िंदगी सहेजने की जल्दी थी। किसी को बूढ़े बाप की कोई चिंता नहीं थी।
हर दिन एक जैसा बीतता – सुबह जल्दी उठकर पूजा करना, आँगन बुहारना, तुलसी में पानी डालना और फिर खामोशी से बैठ जाना। कोई बात करने वाला नहीं, कोई पूछने वाला नहीं। हाँ, एक पुराना एल्बम था जो हर दिन उनका सबसे बड़ा साथी बन गया था। उसमें बच्चों की बचपन की तस्वीरें थीं, परिवार के साथ बिताए त्योहारों की यादें और सरोजा जी की वो तस्वीर जिसमें वो पीली किनारी वाली साड़ी में मुस्कुरा रही थीं।
आज 15 मई थी – अंतरराष्ट्रीय फैमिली डे।
हरिदास जी को इसका कोई खास मतलब नहीं मालूम था, लेकिन दूरदर्शन पर सुबह यही दिखाया जा रहा था की — “आज का दिन परिवार को समर्पित है।”
उन्होंने एक गहरी साँस ली और मन ही मन बोले, “परिवार… अब कहाँ है वो?” वो तो सरोजा के जाते ही सब बिखर गया।
दोपहर के करीब 1 बजे , अचानक गेट के बाहर गाड़ी रुकने की आवाज़ आई। आम दिनों की तरह वो थोड़ा चौंके। बाहर झाँका तो देखा – उनका सबसे छोटा बेटा रवि, उसकी पत्नी अंजलि और दो छोटे बच्चे गाड़ी से उतर रहे थे।
“बाबा! सरप्राइज़!” – रवि ने दूर से चिल्लाया और दौड़कर उनके गले लग गया।
हरिदास जी की आँखें भर आईं। कांपते हाथों से बेटे का चेहरा छुआ और बोले, “अरे बेटा! सब ठीक तो है? अचानक कैसे आना हुआ?”
अंजलि मुस्कुराते हुए बोली, “पापा जी, आज फैमिली डे है ना! तो सोचा, इसका असली मतलब समझें। शहर के रेस्टोरेंट नहीं, गाँव के आँगन में परिवार की गर्माहट महसूस करें।”
बच्चे दौड़ते हुए आम के पेड़ के नीचे पहुँचे और वहीं झूला झूलने लगे। एक बच्चा मिट्टी में खेलने लगा, और दूसरा दादाजी से कहानियाँ सुनाने की ज़िद करने लगा।
हरिदास जी की आँखों में चमक लौट आई थी। वो खुद को रोक नहीं पाए और बोले, “सरोजा आज होती तो कितना खुश होती… इस आँगन को फिर से बच्चों की हँसी गूँजते सुनना – जैसे ज़िंदगी वापस आ गई हो।”
रवि ने मोबाइल पर वीडियो कॉल लगाई और अपने तीनों भाई-बहनों को जोड़ा। बड़े बेटे, मनीष ने कहा, “बाबा, हम सब सोच रहे हैं कि इस बार की छुट्टियाँ हम सब गाँव में साथ बिताएँ। बच्चों को भी वो माहौल दिखाएँ जिसमें हमने पला है।”
हरिदास जी की आवाज़ भर आई, “बेटा, मैंने तो बस यही चाहा था कि मेरा परिवार जुड़ा रहे। शहरों की ऊँची बिल्डिंगों में दिल इतने छोटे कैसे हो गए, ये समझ नहीं आता। लेकिन आज, ये एक कॉल ही मेरे लिए पूरी दुनिया है।”
फिर उन्होंने आँगन से सटी छोटी सी अलमारी खोली, जिसमें सरोजा जी की सबसे प्यारी चीजें थीं। एक रंग-बिरंगी किनारी वाली साड़ी निकालकर बोले, “ये देखो, ये तुम्हारी माँ की सबसे पसंदीदा साड़ी थी। हर तीज-त्योहार पर यही पहनती थी। जब इसमें होती थीं, तो लगता था पूरा घर रोशन हो गया हो।”
अंजलि ने साड़ी को हाथ में लिया और धीरे से कहा, “पापा जी, जब पूरा परिवार आएगा, हम इस साड़ी से कुछ खास बनाएँगे – शायद एक पर्दा जो इसी आँगन में लगे, ताकि माँ की मौजूदगी हमेशा महसूस हो।”
शाम को रवि ने एक छोटी सी पारिवारिक सभा रखी – जिसमें सबने माँ की याद में कुछ बातें कहीं, बच्चे दादाजी से कहानियाँ सुनते रहे, और अंजलि ने सरोजा जी की पसंद की खिचड़ी और बूंदी का रायता बनाया।
खाने के बाद, सब आँगन में बैठ गए – चाँदनी में, एक छत के नीचे।
हरिदास जी बोले,
“बेटा, ज़िंदगी में जितना पैसा कमाना जरूरी है, उतना ही जरूरी ये याद रखना है कि रिश्ते भी समय माँगते हैं। जब तुम छोटे थे, तो हम दिनभर काम करते थे लेकिन रात को एक थाली में सब मिलकर खाना खाते थे। वही पल थे जो आज भी मुझे जीने की ताक़त देते हैं। अब तुम्हारे बच्चे वही समय माँगते हैं। उन्हें वही संस्कार देने हैं।”
रवि सिर झुकाकर बोला, “बाबा, अब समझ आता है कि घर केवल ईंटों से नहीं बनता… वो तो रिश्तों से बनता है। और आपने जो बनाया, हम उसे संभाल नहीं पाए। लेकिन अब संभालेंगे।”
अगली सुबह रवि विदा होने लगा तो हरिदास जी का चेहरा पहले से कहीं ज़्यादा शांत और संतोषपूर्ण था।
उन्होंने जाते-जाते कहा,
“आज समझ में आया कि परिवार का मतलब सिर्फ साथ रहना नहीं, एक-दूसरे की परवाह करना, समय देना और दिल से जुड़े रहना है। ये घर अब फिर से जिंदा हो गया है, क्योंकि तुम सब लौट रहे हो… अपने जड़ों की ओर।”
इस कहानी से क्या सिख मिलती है ?
अंतरराष्ट्रीय फैमिली डे सिर्फ एक तारीख नहीं, एक एहसास है — कि हम अपने व्यस्त जीवन से कुछ समय निकालें और अपने अपनों के साथ कुछ पल बिताएँ। भारत की संस्कृति ने हमें सिखाया है कि परिवार ही सबसे बड़ा सहारा है।
कभी माँ-बाप को फोन कर लो, कभी भाई-बहन से हालचाल पूछ लो, और कभी यूँ ही अपनों के पास जाकर बैठ जाओ।
क्योंकि रिश्तों को निभाना पड़ता है, वरना खून का रिश्ता भी धीरे-धीरे याद बन जाता है।
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Beautiful family story ❤️❤️❤️
Beautiful story❤❤